Tuesday, March 25, 2008

ट्रेन में
तीन लोगों के बैठने की बर्थ पर
मैं अकेला ही था
बीच में बैठा हुआ
बाईं तरफ़
बारिश का कुछ पानी पड़ा था
जो बराबर की खिड़की से आया था।

यूँ तो
खिड़की बंद कर देते हैं लोग,
लोग, जिन में मैं भी शामिल हूँ
मगर उस वक्त,
वो खिड़की ही मेरा सहारा थी।

उस से आती बूँदें ही मेरी मुस्कराहट थी
और उस से दिखते काले बादल
मेरी उदासी;
नहीं जानता,
बादल काले थे इसलिए मैं उदास था
या फिर मैं उदास था इसलिए बादल इतने काले थे।

सोचने का वक्त था
फिर भी
न जाने क्यों
सोचना मुश्किल सा था

बस
अपनी बाहों में अपने घुटनों को
और
अपने अकेलेपन को
जकड़कर बैठा था
फिर भी वो अकेलापन
बर्थ पर मेरे दोनों तरफ़ था।

1 comment:

smilekapoor said...

ye kahani muk hokar v bahut kuchh bolti hai...
bhige se wo pal akele nahi hain...